Saturday 5 June 2010

ये लडकियां फोन पर क्या बतियाती हैं?(व्यंग्य): दिल्ली से योगेश गुलाटी

फोन पर ज्यादा बातें करना तो मुझे बिल्कुल पसंद नहीं है जी! लेकिन फोन पर लंबी बातें करते हुए लोगों को देख कर मैं अकसर ये सोचता हूं कि ये लोग इतनी देर तक क्या बात करते होंगे? विशेषकर दिल्ली की लडकियां तो फोन पर घंटों बातें करती हुई देखी जाती हैं! उन्हें देखकर मेरे मन में अकसर चंद सवाल आते हैं, पहला तो ये कि उनका फोन किस कंपनी का है? क्योंकि घंटों बात करने पर जिसकी बेटरी खत्म ही ना होती हो ये तो कमाल है ना! ये तो वो ही बात हुई क्या करूं खतम ही नहीं होता! मेरे कंबख्त फोन की बैटरी तो हर रोज़ चार्ज करनी पडती है जबकि मैं बमुश्किल दिन में दस मिनट ही फोन का इस्तेमाल करता हूं! दूसरा सवाल जो मेंरे ज़हन में आता है वो ये कि इनके पास कौन सी टेलीकाम कंपनी का कनेक्शन है? जो घंटों निर्बाध बातें करने की सुविधा प्रदान करता है! जबकि मेरा कंबख्त आईडिया का कनेक्शन तो बस....पूछिये मत सर जी! मजाल है कि दस मिनिट भी चैन से बात करने दे किसी से! दस मिनिट में दो तीन बार डिस कनेक्ट ना हो तो क्या आईडिया सर जी?

और दिल्ली मेट्रो में तो अकसर लडकियां फोन पर बात करते हुए ही सफर काटती हैं! ( बिन मांगे सजेशन देने की तो मुझे आदत है नहीं पर बात निकली है तो बता देता हूं, बात ही करनी है तो अपने आजू-बाजू बैठे लोगों से ही बात कर लो, काहे को फोन का बिल बढाते हो?) और वैसे भी सुना है मोबाईल पर ज़्यादा देर तक बात करने से त्वचा काली पडने लगती है! सच तुम्हारी कसम ! अमेरिका में हुई ताज़ा रिसर्च में ये बात सामने आई है! लेकिन ये रिसर्च की बात बीच में कहां से आ गई!

आप भी ना मुझे मुद्दे से भटका देते हो! हां तो हम बात कर रहे थे मोबाईल फोन के इस्तेमाल की! भई हमारी प्राब्लम ये है कि मेट्रो में अव्वल तो हम आजू-बाजू बैठे लोगों से ही बात करके अपना टाईम पास कर लेते हैं! क्य फायदा बेफज़ूल फोन पर किसी का दिमाग चाटने का? और फिर हमें अपनी त्वचा की भी चिंता रहती है! वैसे भी कहावत है ना कि त्वचा से ही उम्र का पता चलता है! क्या कहा ऎसी कोई कहावत नहीं है! आप भी बस... बहस करने लगते हैं! अरे अगर ऎसी कोई कहावत नहीं भी है तो मान लेने में आपका कौन सा खर्चा हो जायेगा? भई ऎसे ही तो नई कहावतें बनती हैं! हम तो आपको एक नई कहावत बनाने का क्रेडिट दे रहे थे! अब आपको नहीं चाहिये तो आपकी मर्ज़ी!

आप सोच रहे होंगे आजू बाजू ट्रेन में सफर कर रहे लोगों से हम क्या बात करते होंगें? लो भाई ये तो अंडर्स्टेंडिंग की बात है! भाई साहब या " ......." टाईम क्या हुआ है, बस यहीं से बात शुरु हो जाती है! अब अपने इंडिया में भले ही आपको लाख वक्त की कोई परवाह ना हो, और नीरे निठल्ले हों लेकिन किसी से बात करनी हो तो वक्त पूछने की परंपरा आदिकाल से चली आ रही है! और हम भी उसी परंपरा का पालन करके बातचीत शुरु किये देते हैं! अब सामने वाला बंदा आपको हसकर टाईम बताएगा ही तो इसके बाद पोलिटिक्स या करप्शन का टापिक छेड दो! या फिर कोई ताज़ा रिलीज़ फिल्म की बात कर्ने लगो! और अगर कोई क्रिकेट मैच चल रहा हो तो उसी के स्कोर पर बातचीत कर लो! इंडियन टीम अच्छा कर रही हो तो तारीफ नहीं तो जम कर कोसो धोनी को! भाई, राजनीति क्रिकेट और फिल्म तो इंडिया में एवरग्रीन देवानंद की तरह हैं! कोई भी इंडियन इन पर अपनी फोकटिया राय देने से खुद को रोक नहीं सकता है!

इस तरह हम जब भी मेट्रो ट्रेन में सफर करते हैं एक ग्रुप डिस्कशन सा माहौल बन जाता है! और बाकी सबको अपने हिंदुस्तानी होने का एहसास होने लगता है! कईं बार तो ऎसा भी होता है कि कुछ यात्री इस ग्रुप डिसकशन में ही इस कदर खो जाते हैं कि अपने जिस स्टेशन पर उन्हें उतरना होता है उसके निकल जाने के बाद उन्हें खयाल आता है कि वो स्टेशन तो निकल चुका! लेकिन हम तो निश्चिंत रहते हैं! हमारे पास मेट्रो का स्मार्ट कार्ड जो है! और हमें खुशी इस बात पर होती है कि हमारे स्टेशन पर उतरने की मजबूरी के बाद भी भाई लोग ग्रुप डिस्कशन जारी रखते हैं और पोलिटिक्स, फिल्म और क्रिकेट जैसे टीआरपी वाले विषयों की वजह से इस डिस्कशन में नये यात्री जुडते रहते हैं और ये क्रम यूं ही बना रहता है! तो है ना ये टाईम पास का अच्छा विकल्प!

 वैसे पहले जब हमें ये आईडिया नहीं सूझा था तब हम टाईम पास के लिये अखबार का इस्तेमाल किया करते थे! लेकिन ये इंडिया है भईया! यहां हर कोई मुफ्त का माल बांचना चाहता है! हम जब भी ट्रेन में अखबार खोलते....सीनियर सिटिजन की सीट पर बैठे अंकल हमसे पोलिटिक्स वाला पन्ना मांग लेते! अब तीन रुपये का अखबार मना भी नहीं कर सकते! लेकिन बात यहीं तक रहती तो ठीक था, लेकिन बाजू में बैठी आंटी फिल्म और फैशन वाला पन्ना मांग लेती! और हम मुस्कुरा कर दे देते! इतने दानवीर बनने पर भी हम एक भी खबर पर कंसंट्रेट नहीं कर पाते! क्योंकि हम ये देखते कि जिस खबर को हम पढ रहे हैं सामने खडे दो लोगों की नज़र भी उसी खबर पर टिकी है! हम पन्ना पलट कर दूसरी खबर पर जाते तो वो साहब बहादुर वहां भी अपनी नज़र गडा लेते! इससे हमें एक चीज़ का एहसास तो हो गया कि नज़र भी कितना इरीटेट कर सकती है! इसलिये अब हमनें मेट्रो ट्रेन में टाईम पास के लिये अखबार पढने से तौबा कर ली है! और ग्रुप डिस्कशन का नया तरीका इजाद किया है!

वैसे टाईम पास की बात पर मुझे एक पुराना कस्सा याद आ गया! इससे आपको एक काम की नसीहत मिल सकती है वो भी मुफ्त में! एक बार एक लडकी के साथ चल रही हमारी लंबी वार्ता के दौरान किसी दुष्ट महापुरुष के टोकने पर हमने कह दिया कि बस यूं ही टाईम पास कर रहे हैं! हमारा इतना कहना था कि अप्रत्याशित रूप से वो लडकी छिड माफ कीजियेगा चिढ गई! उसने कहा क्या मैं टाईम पास करने की चीज़ हूं? अब हम क्या जवाब देते इस सवाल का! हमें क्या पता? इसलिये भुक्त्भोगियों से शिक्षा लो और ये मुफ्त की सलाह अपनी गांठ बांध लो कि किसी भी लडकी से कभी भूल कर भी ना कहो कि आप टाईम पास कर रहे थे उसके साथ ! भई लडकियों को टाईम पास करने वाले फाल्तू टाईप के लडके बिल्कुल भी पसंद नहीं आते! उन्हें तो वो लडके पसंद आते हैं जो वक्त की कीमत समझते हों!

उफ्फ..........ये मैं क्या बात करने लगा! आपने मुझे फिर विषय से भटका दिया! हम बात कर रहे थे मोबाईल फोन की और बात जा पहुंची टाईमपास पर! वक्त की कीमत समझेंगे तभी ज़िंदगी की रेस में जीत पायेंगे! देखा नहीं दुनिया कितनी तेज़ी से आगे बढ रही है! दुनिया के पास वक्त ही नहीं और आप हैं कि टाईम पास के उपाय खोजने में लगे हैं!

कितने फालतू हैं आप! लेकिन हम वक्त की कीमत जानता हूं इसीलिये तो शोर्ट में अपनी बात कहने की कब से कोशिश कर रहा हूं! हां तो हम बात कर रहे थे मोबाईल फोन की! अव्वल तो मैं मेट्रो ट्रेन में मोबाईल का इस्तेमाल नहीं करता! लेकिन कभी कोई अर्जेंट फोन आ जाये उस दौरान, तो चलती ट्रेन में मेंरा फोन फटाक से डिसकनेक्ट हो जाता है नेटवर्क ना मिलने की वजह से! जबकि इन लडकियों को उस वक्त भी आराम से अपने मोबाईल पर बातें करते देखा जा सकता है जब ट्रेन सुरंग में होती है! सुरंग में भी उनको टावर मिल जाता है, ये मिस्ट्री अपुन को समझ नहीं आई!

तो हमने एक लडकी से पूछ ही लिया, एक्सक्यूज़ मी प्लीज़! फोन पर बात करती हुई वो काल को होल्ड पर रख कर बोली येस! मैंने कहा एक छोटा सा सवाल आपसे पूछना था अगर आप बुरा ना मानें तो...! हां हां पूछो-पूछो उसने उत्साह से कहा! आपका मोबाईल....मेरा इतना कहना था कि वो बोल पडी नोट करो,- 9827828.....नहीं-नहीं मैं आपका मोबाईल नंबर नहीं पूछ रहा! तो...? उसके आश्चर्य का ठिकाना ना रहा मानो मैंने उसका बडा अपमान कर दिया हो! मैं तो ये जानना चाहता हूं कि आपका मोबाईल किस कंपनी का है! उसने कहा नोकिया! बडा अच्छा मोबाईल है जी आपका! इतनी देर से आप बात किये जा रही हैं फिर भी इसकी बैटरी खत्म ही नहीं होती! अब मैने जल्दी से दूसरा सवाल दाग दिया! और इसमें कनेक्शन कौन सी कंपनी का है? आईडिया का! ये सुनकर मेरा पारा चढ गया! क्योंकि इससे कंपनी का दोहरा चरित्र उजागर हो गया था! उसी कंपनी की सिम में मुझे खुले मैंदान में और सूरज की रोशनी में भी सिग्नल नहीं मिलते! और लडकियों को सुरंग के अंधेरे में भी वो सिग्नल प्रवाईड कर रही थी! हमने भी ठान लिया कि आज ही बदल डालेंगे अपनी सिम और ले लेंगे किसी ऎसी कंपनी की सिम जो लिंग भेद ना करती हो!

मेरा आखिरी सवाल, अब वो मेरी तरफ ऎसे देखने लगी जैसे मैं उसके घर का एड्रेस पूछने वाला हूं! मैं थोडा रुका और सोचने लगा वैसे भी अब एड्रेस पूछने या फोन पर इतना लंबा कैसे बतिया लेती हैं जैसे फालतू सवालों के सिवाय कोई सवाल बचता नहीं है! और दोनों ही सवाल पूछने में उसके छिड माफ कीजियेगा चिढ जाने की संभावना थी! हालाकि लडकियां फोन पर इतना लंबा क्या बतियाती हैं ये जानने की जिग्यासा शांत नहीं हुई थी!

दरसल ये जिग्यासा उस वक्त और बढ गई थी जब हमने अपने पडोस की एक लडकी को, उसके घर की छत पर, अपने घर की छत से, रात्री के दूसरे पहर फोन पर, पूरा एक घंटा बतियाते देखा था! और उसकी ये बातचीत भी इसलिये खत्म हुई थी क्योंकि उसके फोन की बैटरी खत्म हो गई थी! लेकिन अभी उसे और बात करना बाकी था इसलिये उसने बेझिझक हमसे हमारा फोन मांग लिया! उस रात हमारी ये जिग्यासा तो खत्म नहीं हुई हां फोन की बैटरी और प्रीपेड बैलेंस ज़रूर खत्म हो गया था! वो मुझे अभी भी घूर रही थी! किसी खबरिया चैनल में काम करते हो क्या? उसने कहा! " इसे कैसे पता चल गया"? मैंने मन ही मन सोचा! एक और जिग्यासा जाग उठी! मुझे भरी ट्रेन में बेईज़्ज़ती खराब होने का खतरा लेना सही नहीं जान पडा! इसलिये मैंने आगे के सवाल विड्रा करते हुए कहा,-" इस जानकारी के लिये आपका शुक्रिया!" वो फिर फोन पर बिज़ी हो गई थी! अब ये जानने की उत्सुकता तो थी कि ये लडकियां इतनी देर फोन पर बात क्या करती हैं? इसलिए अगली बार हमनें इनकी बातचीत पर कान देने की ठानी! और जो बातें हमने सुनी तो हम दंग रह गये! लेकिन वो सब अगली पोस्ट में! तब तक इस मुद्दे पर कुछ और रिसर्च भी हो जायेगी!

श्वान पर गोली

उस बालक ने श्वान पर ही प्रस्तर प्रहार किया था। जब बालक श्वान पर प्रहार करने वाला था तो उसने देख लिया और भाग गया। बालक का निशाना भी कोई अचूक नहीं था और वह हमारे साइकिल के बीचों बीच निकल कर पास से निकल रहे एक स्कूटर को जा लगा।


स्कूटर चालक के साथ एक महिला भी थी जो संभवत उसकी पत्नी रही होगी। स्कूटर वाला आगे जाकर रुका और चिल्लाया-‘ऐ किसने फैंका यह पत्थर?’

पांच से सात वर्ष का वह बालक सहमा हुआ उसे देख रहा था। स्कूटर चालक उतर कर उसके पास आया और बालक को संबोधित कर बोला-‘दूं एक थप्पड़! क्यों मारा पत्थर?’

बालक सहमते हुए अब भी उसे निहार रहा था। इतने में पास ही से ईंटों की कच्ची झौंपड़ी से उस बालक की मज़दूर मां निकल कर आयी और बोली-‘बाबूजी, यह पत्थर यह अक्सर उस कुत्ते को मारता है जो एक बार इसके पीछे दौड़कर काटने की कोशिश कर चुका है। यह गोली खरीदने जा रहा था तो वह यहीं सोया हुआ था, इसलिये उसे भगाने के लिये यह पत्थर मारा था। अब वह कुत्ता तो भाग गया।’

स्कूटर चालक ने कहा-‘आइंदा ध्यान रखा करो। किसी को लग जाये तो, या फिर उसकी वजह से किसी की गाड़ी का संतुलन बिगड़ा तो कितनी परेशानी होगी।’

बीच में हमने भी बोला दिया कि ‘हां, इसने उस कुत्ते पर ही पत्थर फैंका था!

इस कहानी में ऐसा कुछ नहीं है कि लिखा जाये मगर जब किसी संत के आश्रम के पास गोली चलकर उसके आश्रम पहुंची हो और भक्त अपने गुरु पर चलाई बता रहें तो यह कहानी याद आनी ही थी।

जीवन की कला सिखाने वाले संत! सारी दुनियां को जीवन शांति से बिताना सिखाने वाले संत अपने पड़ौसियों को नहीं सिखा पाते कि पशुओं को भी शांति से जीने का हक है। इसे कहते है कि घर का ज्ञानी बैल बराबर!

कहां संत कहां श्वान! भक्तों को गुस्सा आ सकता है। जिस समय उपरोक्त कहानी की पात्र महिला मज़दूर मां ने अपनी स्कूटर चालक से कहा कि ‘इस बच्चे ने तो कुत्ते को पत्थर मारा था’ तब वह दूर स्कूटर के पास खड़ी अपनी पत्नी की तरफ निहारा था कि कहीं वह सुन तो नहंी रही। एक पत्थर जो कुत्ते की तरफ उछाला जाये और आदमी को लगे तब घायल होने पर भी शायद उसे इतना बुरा न लगे पर उससे बड़ा घाव तो उसके दिल पर इस बात से होगा कि वह कुत्ते के लिये उछाला गया था। जब स्कूटर चालक चला गया तो हमने उसकी सहनशीलता की मन ही मन तारीफ की। साथ में उस मज़दूर महिला के सच बोलने पर भी गुस्सा आ रहा था। वहां एक गाय, बकरी, मुर्गी और भैस के अलावा एक बैल भी था। वह कह सकती थी कि ‘गाय को मारा है।’ इस नाम में पवित्रता है और कोई बुरा नहीं मानता। कुत्ता शब्द पर वह स्कूटर चालक गुस्से में लड़को एक दो हाथ भी जड़ सकता था। उसने ऐसा नहीं किया यह उसकी महानता थी।

जीवन की कला सिखाने वाले संत के आश्रम के पीछे ही उसके पड़ौसी के भेड़ पालने का आश्रम है-अब हिन्दी में फार्म हाउस का अनुवाद पता नहीं है सो यही ठीक लगता है-जहां श्वान उसके पालतुओं पर आक्रमण करते रहते हैं जिनको भगाने के लिये उसने पिस्तौल से एक नहीं दो गोलियां चलाईं।

जांच अधिकारी उसकी बात से संतुष्ट नज़र आ रहे हैं। इधर संत श्री की बात भी सच नज़र आ रही है कि उन्होंने गोली की आवाज़ सुनी थी। उन्होंने शायद पहली गोली की आवाज सुनी थी पर जो उनके भक्त के पास गयी वह शायद दूसरी गोली थी जो कुछ अंतराल के बाद चली होगी। लोगों ने पहले इस बात पर संदेह जाहिर किया था कि संत के मंच पर रहते हुए गोली हो। मंच पर जब वह थे तब पहली गोली होगी पर उनके भक्त के पास पहुंची दूसरी गोली ने ही सबसे अधिक बवाल मचाया।

इस गोली पर जितनी बहस हुई अब उस पर हंसना ही चाहिए। धर्म, जाति, भाषा, तथा वर्ग के आधार पर अनेक प्रकार के आतंकवाद पर बहस हो गयी। अब तो संत भी सुरक्षित नहीं है जैसी बात कही गयी। अब तो ऐसा लगता है कि आज़ादी के बाद जितनी भी बहसें होती रही हैं सब बेकार हैं। कभी कभी तो लगता है कि एशियाई देशों में बढ़ती जनसंख्या को संभालना कठिन है इसलिये यहां के देशों के आर्थिक, सामाजिक तथा धार्मिक शिखर पुरुष बेकार की बहसों के लिये अपने अनुयायी नियुक्त करते हैं जिनको बुद्धिजीवी भी कहा जाता है। इतना ही नहीं इनके लिये बहस के नाटक वास्ते वह मुद्दे लाने के लिये कहीं खेल तो कहीं हादसे भी कराते हैं ताकि लोग भ्रामक मुद्दों में उलझे रहें। अभी पश्चिम से पुरस्कार प्राप्त एक लेखिका नक्सलवादियों का खुलेआम समर्थन कर रही है। सवाल यह है कि संगठित प्रचार माध्यम उसे छाप क्यों रहे हैं? तय बात है कि संगठित प्रचार माध्यम भी कहीं न कहीं शिखर पुरुषों पर आश्रित हैं और उनको पता है कि ऐसे पुरस्कार विजेता उनके लिये बहस का सामान प्रयोजित करने वाले कारिंदे हैं अतः आगे उनके विरोधियों से लिखवाने के लिये ऐसे मूर्खतापूर्ण बयान छापना जरूरी है।

बात उससे भी आगे हैं! वह विदेश से मान्यता प्राप्त है तो उसका दूर दिया गया बयान छाप देते हैं और हमारे तीन तीन आध्यात्मिक लेख एक अखबार बिना नाम के छाप देता है क्योंकि कहीं से प्रायोजित नहीं है। एक स्तंभकार ने तो हद ही गांधीजी, ओबामा तथा नोबल पुरस्कार पर लिखे गये तीन लेखों के सभी पैरे उड़ाकर अपना लेख लिख लिया। इधर यह अखबार कहते हैं कि इंटरनेट पर अच्छा नहीं लिखा जा रहा उधर बिना नाम के हमारे ही नहीं दूसरों के भी लेख छाप रहे हैं। स्वतंत्र बुद्धिजीवी, विचारक और चिंतक को उबरने नहीं देंगे, गैर प्रायोजित रहने वाले संत को मानेंगे नहीं, जो समाज या पूंजीपतियों से सम्मानित नहीं है तो उस समाज सेवक को फोकटिया मानेंगे और चाहे जिसने श्री मद् भागवत् गीता, संत कबीर, गुरुग्रंथ साहिब तथा रामायाण का जितना भी अध्ययन किया हो पर उसे तब तक ज्ञानी नहीं मानेंगे जब तक वह साधु दिखने के लिये सफेद या गेरुए वस्त्र नहीं धारण करेगा। अध्यात्मिक ज्ञान करते करते जब तक मनोरंजन बात न करे तब किसी को संत नहीं मानेंगे-यह प्रवृत्ति पूरे समाज की हो गयी है इसलिये उसके सामने दूर के ढोल सुहावने रखने के लिये ऐसे ही मुद्दे रखे जाते हैं जिससे उसका संबेध नहीं है।

बहरहाल जिस आदमी ने श्वान को गोली मारी उसके लिये अब पशु प्रेमी संकट खड़ा कर सकते हैं। वैसे श्वान को गोली मारने के लिये चलाना अजीब लगता है पर शायद वह उनके भेड़ों पर श्वानों के झुंड से हमले का खतरा रहा होगा। वरना श्वान तो पानी से भी भागता है। उस दिन हमने घर के बाहर अपने कीचड़ में सने जूते धोने के लिये जैसे डिब्बे से पानी डाला, बाहर थोड़ी दूर सो रहा श्वान भाग खड़ा हुआ इस आशंका से आदमी का क्या भरोसा कि कब दिमाग फिर जाये और पानी मेरी तरफ उछाल दे। यह लिखने की बात नहीं है पर इतनी बहस में इतने सारे शब्द खर्च हो गये तो थोड़ा और ही सही। बस अंतर इतना है कि बाकी बहसें प्रयोजित हैं सो भाग लेने वालों को कुछ न कुछ मिलता है हम तो ठहरे फोकटिया पर क्या करें, लिखने के लिये कोई जगह तो चाहिए न!
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com